Dehradun: Vikalp Printers (
2020)
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Abstract
जिनशासन प्रणेता आचार्य समन्तभद्र (लगभग दूसरी शती) ने इस ग्रंथ "स्तुतिविद्या" में, जिसका अपरनाम "जिनशतक" अथवा "जिनस्तुतिशतं" है, अत्यंत अलंकृत भाषा में चतुर्विंशतिस्तव किया है। यह गूढ़ ग्रंथ आचार्य समन्तभद्र के अपूर्व काव्य-कौशल, अद्भुत व्याकरण-पांडित्य और अद्वितीय शब्दाधिपत्य को सूचित करता है। जिनेन्द्र भगवान की स्तुति करने का कारण यही है कि उनके द्वारा प्रतिपादित मोक्षमार्ग की अमोघता और उससे अभिमत फल की सिद्धि को देखकर उसके प्रति हमारा अनुराग (भक्तिभाव) उत्तरोत्तर बढ़े जिससे हम भी उसी मार्ग की आराधना-साधना करते हुए कर्म-शत्रुओं को जीतने में समर्थ हो सकें और निःश्रेयस (मोक्ष) पद को प्राप्त कर सकें। सच्ची सविवेक भक्ति ही मार्ग का अनुसरण करने में परम सहायक होती है और जिसकी स्तुति की जाती है उसके मार्ग का अनुसरण करना ही स्तुति को सार्थक करता है। सारांश यह है कि हम जिनेन्द्र भगवान की स्तुति अपने स्वयं के परिणामों को निर्मल बनाने के लिए करते हैं। स्तुति वास्तव में एक विद्या है। सम्यक स्तुति घने-कठोर घातिया-कर्म रूपी ईंधन को भस्म करने वाली समर्थ अग्नि है।
‘Stutividyā’ by Ācārya Samantabhadra (circa second century CE) is the adoration of the twenty-four Tīrthańkara, the Most Worshipful Supreme Beings. In his earlier masterpiece work ‘Svayambhūstotra’, Ācārya Samantabhadra had expressed his devotion to the twenty-four Tīrthańkara in a highly analytical manner, establishing the supremacy and inviolability of their Doctrine. ‘Stutividyā’, however, is the epitome of poetic dexterity; in its 116 verses, Ācārya Samantabhadra has used the most amazing figures-of-speech – alańkāra – that make the composition highly ornate, inviting and, at places, extremely difficult to comprehend. Such adroitness is possible only in the Sanskrit language; perhaps that is the reason some consider Sanskrit as the most scientific language in the world.