Abstract
प्रस्तुत शोध-पत्र भाषायी विश्लेषणात्मक दर्शन की प्रकृति एवं सीमाओं को व्यापक रूप से विट्गेन्सटाइन की अवधारणा के संदर्भ में विवेचित करता है। विट्गेन्सटाइन के दर्शन में किन प्रभावों के कारण साधारण भाषा दर्शन का उदय होता है एवं यह किस रूप में विश्लेषणात्मक दर्शन की परंपरा को समकालीन पाश्चात्य दर्शन में रेखांकित करता है, इसको स्पष्ट करना इस शोध-पत्र का उद्देश्य है। साथ ही पूर्व के दर्शनों एवं उत्तरवर्ती विट्गेन्सटाइन के दर्शन में वह कौन सा मूलभूत वैषम्य है, जिसके कारण भाषायी विश्लेषणात्मक दर्शन में नूतन आयाम संज्ञान में आते हैं, इसे भी अभिव्यक्त करना है। इस क्रम में विट्गेन्सटाइन के भाषा संबंधी विचारों जैसे- दर्शन का कार्य नवीन ज्ञान का प्रस्तुतीकरण नहीं है, दर्शन मात्र नैदानिक है, दार्शनिक समस्याएं समस्याभास मात्र हैं इत्यादि का मूल्यायन किया गया है एवं विट्गेन्सटाइन के दर्शन के संबंध में प्रायः अन्य प्रतिष्ठित दार्शनिकों जैसे- राईल, आस्टिन, स्ट्रासन आदि के द्वारा जो आपत्तियां उठायी गई हैं, उनकी समालोचना प्रस्तुत करने का भी प्रयास किया गया है।